ज़ुल हिज्जा
माहे ज़ुल्हिज्जा बड़ी बरकतों वाला महीना है यह इस्लामी कैलेंडर का आखिरी महीना है इस महीने में इस्लाम की अज़ीम इबादत हज मुबारक और कुर्बानी अदा की जाती है लाखों फरज़िंदाने तौहीद और शमअ रिसालत के परवाने अपने परवरदिगार के हुक्म की तामील और नबी करीम अलैहिस्सलातु वस्सलाम की पैरवी में मगन मसरूफे इबादत होते हैं।
कुर्बानी का हुक्म
अल्लाह तआला ने अपने प्यारे नबी करीम रऊफो रहीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इरशाद फरमाया “अपने परवरदिगार के लिए (ए महबूब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) नमाज़ पढ़ो और कुर्बानी करो” इस आयत मुबारक में अगर्चे खिताब नबी करीम रऊफो रहीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से है मगर हुक्म बिल उमूम सारी उम्मते मुस्लिमा के लिए है चुनाँचे तमाम मुसलमान इस हुक्मे खुदावंदी के काइल और फाइल हैं और इंशाअल्लाह रहेंगे।
क़ुर्बानी
लफ्ज़ क़ुर्बान अरबी लुगत के एतबार से हर उस चीज़ को कहा जाता है जिसको किसी के क़ुर्ब का ज़रिया बनाया जाए और इस्तलाह शरअ में उस ज़बीहा वगैरह को कहा जाता है जो अल्लाह तआला का क़ुर्ब हासिल करने के लिए किया जाए।
ज़माना ए क़दीम में कुर्बानी के कबूल होने की अलामत यह होती थी के सफेद रंग की गैबी आग आसमान से आती और कुर्बानी की चीज़ को जला देती और अगर कुर्बानी कबूल ना होती तो उस पर ना आग आती और ना ही उसे जलाती वह चीज़ वहीं पड़ी रहती थी, जैसा के काबील और हाबील की कुर्बानी के बारे में इरशादे खुदावंदी है, जब के दोनों (काबील और हाबील) ने कुर्बानी दी पस उन दोनों में से एक से कबूल की गई दूसरे से कबूल न की गई, (सूरह माईदा)
इसी तरह कुर्बानियों के गोश्त और माले गनीमत भी बारगाहे इलाही में पेश किए जाते थे और झगड़े की सूरत में अपनी हक्कानियत इस तरह पेश की जाती थी के जो सच्चा होता था उसकी कुर्बानी को आग जला देती थी, झूटे की कुर्बानी यूंही पड़ी रहती थी। कुर्बानियों की क़ुबूलियत की बुनियाद सच्चाई और तकवा थी और आज भी ऐसे ही है। क़ुरान में इरशादे बारी तआला है, “अल्लाह तआला को हरगिज़ उन क़ुर्बानी के जानवरों के न तो गोश्त पहुँचते हैं और न ही खून, हाँ तुम्हारी परहेज़गारी बारयाब होती है”। (सूरह हज)
कुर्बानी वह अमल है जिसमें अहदे नुबुव्वत से लेकर आज तक मुतावातिर इत्तेफाक चला आ रहा है, कुर्बानी एक ऐसी इबादत है जो अल्लाह तआला के हां बहुत पसंदीदा और मकबूल है, इसमें सिर्फ रज़ा ए इलाही को मद्दे नज़र रखना चाहिए, और हर किस्म के तकब्बुर, रिया, शोहरत, और फ़ख्र, से बचना चाहिए, इसलिए के कुर्बानी का मकसद न तो सिर्फ गोश्त खाना है और ना ही शोहरत व फ़ख्र, बल्के तकवा और रज़ा ए खुदावंदी है।
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